ब्लौगर साथीओं आज मुर्गा -मुर्गी के वियोग व प्रेम की व्यथा का आनंद लीजिये ........
मुर्गा बोला..........
कुकड़ू कु .......
मेरी हमसफर .....मेरी हमदम ......
कहाँ हो तुम?????????????......
तुम नहीं आईं.....
कैसे बताउं तेरे बिन ....
डंसती है ये तन्हाई .
आओगी .....तुम .....ये सोचकर ....
तन्हा यहीं खड़ा हूँ ....
जिस मोड़ पे मुझे छोड़ गईं थीं ?
बेबस वहीं पड़ा हूँ ......
जिउं......? वो भी तुम बिन ...? नहीं .........
मेरे दिल को नही गवारा ........
मुर्गी रानी मान भी जाओ ....
तुम बिन मेरा कौन सहारा ?
मुर्गी बोली ......
मुद्दतें गुजर गईं
तुम्हें भूल नही पाई.......
वियोग की अग्नि को ...
दहका गई पुरवाई .
कैसे जिउं तुम बिन ?
पांव पड़ी जंजीर है मेरे ....
कैसे मिलने आऊं....?
भौरा गुंजन करता था ......
कलियाँ खिलखिलाती थी ....
तितली बनकर जब-जब मै ....
उपवन में लहराती थी .
हाय ! ये क्या हो गया .....?
उस निर्दय पतझड़ के आगे ......
लूट गईं बहारें......!
नहीं रोक सकेंगे मुझको ......
करे लाख जतन जग सारा ....
मुर्गे राजा ....मुझको चाहिए
केवल औ केवल साथ तुम्हारा ....