Thursday, March 21, 2013

अब की सजन मैं ..होली.....



.होली के अवसर पर पति महोदय  पत्नी को काम की वजह से 
घर नहीं आ पाने की मजबूरी बता रहे हैं ....परिणाम 
गुस्सा ,शिकायत या कुछ और.... होता है ..आइये इस                                                                           
कविता के माध्यम से जानते हैं .....


क्या ..काम बहुत है ...इस बार होली ..
में नहीं आ पाओगे .......?

मत आना परदेशी पिया मैं ......
कुछ नहीं बोलूँगी ....
अब की सजन मैं ..हो..ली ....
आपके दोस्तों के संग खेलूंगी .....

लाल,पीले ,हरे, गुलाबी ..
रंग मुझे भिजवा देना 
कौन-कौन से दोस्त यहाँ हैं ..?
उनके मोबाइल नम्बर भिजवा देना ....

गली ,मोहल्ले .घर-बाहर सभी ..
देवरों और जीजाओं के नामों  की सूची बनाकर 
छप्पन पकवान बनवाऊगी ....आग्रह करके बार-बार                                                     
सभी को घर आपके बुलवाऊंगी .....
अगली होली भी साथ खेलूंगी उनके 
सबको विश्वास दिलाऊगी ......

सुबह-दोपहर रंग लगाकर 
शाम में गुलाल लगाऊगी ..
अब की होली में सजन मैं ..
झूम-झूम के गाऊँगी ......

मरुस्थल में फूल ...कमल....का ....?
किस्मत से हीं खिला है .....
होली में बंधनमुक्त रहने  का मौका ...
पहली बार मिला है .....
इस मौके का फायदा ...
जीभर ..मैं ..उठाऊगी ....
जीवन के सारे कडवाहट ..
रंगों के साथ भूल जाऊँगी ..
अब की सजन मैं ..होली ...में 
अल्हड बाला  बन जाऊँगी ....


बनकर तितली मैं ..बगिया के ..
हर फूल पर मंडराऊगी ...
इस बगिया से उस बगिया तक 
मर्जी से लहराऊंगी ..
अब की सजन मैं होली में ..
झूम-झूम के गाऊँगी ......

होली के दिन देखिये क्या होता है .......

बसंत दूत की मीठी कूक 
बगिया में लहराई ...
रंगों के माहौल में वो .....
ख़ुशी  से चिल्लाई ...

असम्भव को संभव कर दिया 
हो निशा बड़ी नशीली ..
खाका खींचा औरों के संग ..पर…. 
खेली पिया संग होली ......

एक पत्नी होने के नाते हर महिला  को 
अपने पति की कमजोरी के बारे में जानकारी 
रखनी चाहिए कई बार बिना झगडा या गुस्सा किये ही 
काम हो जाता है .....
वैसे भी पति नामक  इंसान  अधिकतर दोहरी मानसिकता वाले 
होते हैं ..खुद तो दूसरों की बीवी पर नज़र रखते हैं पर अपनी 
बीवी को ज़माने की निगाहों से बचाकर रखना चाहते हैं ....
वस्तुत:बड़े कमजोर होते हैं ...पति बनाम पुरुष  ....बुरा न मानों होली है ....





Friday, March 15, 2013

समय की पुकार

ओ द्रुत वेगमयी गंगा .....
किससे  मिलने जा रही हो ?
बिना रुके तुम मस्ती में
क्यों इतना इठला रही हो ?

आगे बढ़कर पीछे आती
हुलस-हुलस  जाने क्या गाती
स्वच्छ मनोहर झागों में बंटकर
शीतलता बिखरा रही हो,....

कौन छूट गया पीछे तेरा ?
जिसको लेने जा रही हो ?
ओ फेनिल धारों वाली गंगा
किससे  मिलने जा रही हो ?



आगे बढती कभी न रूकती
मस्ती में तुम कभी न थकती
आगे बढ़ना ,पीछे मुड़ना
सबको साथ लिए हीं चलना .....



बिना बोले ,बिना शोर किये हीं
 मूलमंत्र ....सिखला रही हो ....
ओ ..द्रुत  वेगमयी गंगा ....
किससे मिलने जा रही हो ?

सोचो  ! क्या ...?
सागर हीं तेरा सत्य है ?
तेरे जीवन का औचित्य है ?


तेरा सत्य तुम्हें पुकार रहा है ....
तुन्हें ...तुम्हारी राह  बता रहा है
बनोगी गर तुम .....

किसी भीड़ का हिस्सा ?
कैसे रच पाओगी बहना ..
खुद का कोई किस्सा ?


सागर में मिलते हीं तेरा
स्वरुप ....खो जाएगा
तेरा तुझमें कुछ न रहेगा
सब खारा हो जाएगा
जिस दिन मिलन तुम्हारा आली ..
सागर से हो जाएगा .....

चंद  खुशियों की खातिर
छोड़ों सागर से मिलने की आस
तुमको अब गढ़ना ही होगा
एक नया इतिहास .....



समय की पुकार यही है
संकल्प तुम्हें अब करना होगा
तोड़ के सारी बाधाओं को
तुम को आगे बढ़ना होगा ....
तुमको  आगे बढ़ना हीं  होगा .......












Thursday, March 7, 2013

साथी तेरे बिन

ब्लोगर साथियों ..आज .मै  एक विधुर की डायरी के कुछ अंश जो उन्होंने अपनी  स्वर्गीय  पत्नी
को  संबोधित करके  लिखा था ....को.मै . कविता के रूप में प्रस्तुत कर
रही हूँ ..और इस कविता को महिला दिवस के अवसर पर अपने माता -पिता के साथ -साथ सभी पति-पत्नी को
 समर्पित कर रही हूँ .....काश कि हर पति -पत्नी को एक दुसरे की अहमियत सदैव पता रहे ......कोई किसी को
दान में मिली हुई  वस्तु न माने .....


                                                                                                                     
जीवन मेरा उपवन था ..
जब साथ तुम्हारा था प्रिये !
बनकर मालन मेरे उपवन की ....तुम ....
काँटे सब बीन लेती थीं
मेरे सारे दुःख-दर्द मुझसे कहे बिना ....
छिन लेती थीं .....
बनकर नाविक नौका का मै ..
नाव बढ़ाए जाता था
हो बेखबर दिन-दुनिया से
चैन की वंशी बजाता था ....


वही जीवन है ...
वही जगह है ..
वही रात और दिन ..
मरुस्थल बन गया जीवन मेरा ...
साथी तेरे बिन ......
यादों के गलियारों में मैं .....
बीज विरह के बोता हूँ
वियोग की पीड़ा से व्याकुल होकर ...
छिप-छिप-के रोता हूँ ......

हर पल जैसे यूँ लगता है
साँसों की डोर खो रही है ..
दुःख से मेरे कातर होकर
प्रकृति भी रो रही है ......

सहन नहीं किया था जो
वो भी सहना पड़ता है
सुना नहीं था किसी से जो
वो भी सुनना  पड़ता है ....

साथ बिताये तेरे सारे .
.पल थे मेरे अच्छे ...
संगीविहीन  हो यूँ लगता है
पराये हो गए बच्चे ....

सहधर्मिणी बन तूने सारा फर्ज
बखूबी निभाया था
मेरी सारी कमियों के साथ
तूने मुझे अपनाया था ..

अपनी अंतिम यात्रा से पहले ...
काश ध्यान मेरा रख पातीं
जीवन के अंतिम सफर में
अपने साथ मुझे ले जातीं ....